
भूमिका: शिव-तत्त्व और अग्नि का तादात्म्य
भारतीय मनीषा में महाशिवरात्रि केवल एक तिथि मात्र नहीं है, अपितु यह काल-चक्र का वह संधि-स्थल है जहाँ ‘जीव’ और ‘शिव’ के मध्य की दूरी न्यूनतम हो जाती है। शास्त्रानुसार, फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की वह रात्रि, जिसे हम शिवरात्रि कहते हैं, ब्रह्मांडीय चेतना के जागरण की रात्रि है। इस परम पुनीत अवसर पर सम्पादित किए जाने वाले अनुष्ठानों में ‘हवन’ अथवा ‘अग्नि-होत्र’ का स्थान सर्वोपरि है।
अग्नि को वेदों में ‘देवताओं का मुख’ (अग्निर्वै देवानाम मुखम) कहा गया है। जब हम अग्नि में आहुति प्रदान करते हैं, तो वह सूक्ष्म होकर सीधे इष्ट देव तक पहुँचती है। महाशिवरात्रि २०२६ के विशिष्ट खगोलीय संचरण के समय, शिव-हवन का महत्व और भी द्विगुणित हो जाता है। यह लेख इस प्राचीन वैदिक पद्धति के प्रत्येक पक्ष—दार्शनिक आधार से लेकर आधुनिक सुगमता तक—का एक विस्तृत अकादमिक और आध्यात्मिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
१. हवन का दार्शनिक एवं तत्वमीमांसीय आधार
हवन की प्रक्रिया केवल भौतिक द्रव्यों का दहन नहीं है, अपितु यह ‘यज्ञो वै विष्णु:’ की अवधारणा का विस्तार है। भगवान शिव स्वयं अग्निसवरूप हैं। ‘लिंग पुराण’ के अनुसार, सृष्टि के आरम्भ में जब ब्रह्मा और विष्णु के मध्य श्रेष्ठता का विवाद हुआ, तब शिव एक अनंत अग्नि-स्तम्भ (ज्योतिर्लिंग) के रूप में प्रकट हुए थे। अतः अग्नि के माध्यम से शिव की आराधना करना उनके मूल स्वरूप की ओर लौटने जैसा है।
रूपांतरण का प्रतीक (Symbolism of Transformation)
अग्नि का धर्म है—ऊर्ध्वगमन। संसार की समस्त वस्तुएं गुरुत्वाकर्षण के कारण नीचे की ओर गिरती हैं, किंतु अग्नि की शिखा सदैव आकाश की ओर ही उठती है। यह साधक के अंतर्मन की उच्चतर चेतना की ओर गति का प्रतीक है। जब हम हवन कुंड में ‘इदं न मम’ (यह मेरा नहीं है) के भाव से आहुति डालते हैं, तो हम अपने अहंकार, विकार और अज्ञान का त्याग कर रहे होते हैं।
“यस्य नि:श्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत्। निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थं महेश्वरम्॥”
२. महाशिवरात्रि पर हवन की महत्ता: आध्यात्मिक एवं ज्योतिषीय दृष्टिकोण
शिवरात्रि की रात्रि को ‘महारात्रि’ कहा गया है। इस समय पृथ्वी का उत्तरी गोलार्ध इस प्रकार स्थित होता है कि मनुष्य के भीतर की ऊर्जा का प्राकृतिक रूप से ऊपर की ओर संचरण होता है।
कर्माशय का शुद्धीकरण
प्रत्येक मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में जन्म-जन्मांतर के संस्कारों का भंडार होता है, जिसे ‘संस्कार पुंज’ या ‘कर्माशय’ कहते हैं। अग्नि में प्रयुक्त होने वाली सामग्रियां, विशेषकर औषधीय जड़ें और शुद्ध घृत, जब मंत्रों के कंपन के साथ संयुक्त होती हैं, तो वे एक विशिष्ट प्रकार का ‘प्राणिक वातावरण’ निर्मित करती हैं। यह वातावरण साधक के चित्त की अशुद्धियों को भस्म करने में सहायक होता है।
ज्योतिषीय निवारण (Astrological Remediation)
वर्ष २०२६ की ग्रह स्थितियों के अनुसार, शनि और राहु के प्रभाव को संतुलित करने के लिए शिव-हवन एक अमोघ अस्त्र है। शिव को ‘महाकाल’ कहा गया है, जो काल (समय) और ग्रहों के अधिपति हैं। हवन से निकलने वाला धूम्र (धुआं) और मंत्रों की ध्वनि तरंगे घर के वास्तु दोषों और नकारात्मक ऊर्जाओं का शमन करती हैं।
३. शिव-हवन के विभिन्न प्रकार
साधक अपनी सामर्थ्य, समय और संकल्प के अनुसार निम्न में से किसी भी विधि का चयन कर सकता है:
क. लघु गृह हवन (Domestic Small-scale Rite)
यह आधुनिक जीवनशैली के अनुरूप है। इसमें ‘दिव्य हवन शक्ति किट’ जैसे साधनों का उपयोग किया जाता है, जिसमें गोमय (गाय के गोबर) के कप और शुद्ध सामग्री पहले से ही संयोजित होती है। यह उन श्रद्धालुओं के लिए उत्तम है जो महानगरों के अपार्टमेंट में रहते हैं जहाँ बड़ा अग्निकांड संभव नहीं है।
ख. शिव पञ्चाक्षरी हवन
यह पूर्णतः “ॐ नमः शिवाय” मंत्र पर केंद्रित होता है। इस मंत्र के पांच अक्षर—न, म, शि, वा, य—क्रमशः पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के प्रतीक हैं। इनके माध्यम से ब्रह्मांड के पांचों तत्वों का शुद्धीकरण किया जाता है।
ग. महामृत्युंजय हवन
स्वास्थ्य, दीर्घायु और अकाल मृत्यु के भय से मुक्ति हेतु यह सर्वाधिक शक्तिशाली अनुष्ठान है।
“ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्॥”
४. अनिवार्य हवन सामग्री: एक वैज्ञानिक एवं शास्त्रीय विश्लेषण
हवन की सफलता उसकी सामग्री की शुद्धता पर निर्भर करती है। ‘अशुद्ध’ या ‘कृत्रिम’ सामग्री का प्रयोग न केवल आध्यात्मिक रूप से निष्फल है, अपितु स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हो सकता है।
| सामग्री | आध्यात्मिक महत्व | वैज्ञानिक/भौतिक गुण |
| गौ-घृत (Desi Cow Ghee) | अग्नि की जिह्वा; देवताओं का पोषण। | उच्च ताप पर जलकर ऑक्सीजन के स्तर में वृद्धि। |
| गोमय (Cow Dung) | सात्विक आधार; लक्ष्मी का वास। | उत्कृष्ट कीटाणुनाशक और रेडियो-प्रोटेक्टिव गुण। |
| गुग्गुल (Guggul) | नकारात्मक शक्तियों का शमन। | वायुमंडल को शुद्ध करने वाला प्राकृतिक रेजिन। |
| भिमसेनी कपूर | अहंकार का पूर्ण विलय (बिना अवशेष जले)। | तनाव मुक्ति और श्वसन मार्ग की शुद्धि। |
| बिल्व पत्र | शिव को अत्यंत प्रिय; त्रिगुणों का प्रतीक। | औषधीय गुणों से भरपूर। |
‘दिव्य हवन शक्ति किट’ की प्रासंगिकता
आज के व्यस्त युग में शास्त्रोक्त शुद्धता बनाए रखना कठिन है। यही कारण है कि प्रामाणिक किट का उपयोग बढ़ रहा है। ये किट सुनिश्चित करते हैं कि आहुति में प्रयुक्त सामग्रियां मिलावट मुक्त हों, जिससे अनुष्ठान का पूर्ण फल प्राप्त हो सके।
५. हवन की चरणबद्ध विधि (Step-by-Step Vidhi)
प्रथम चरण: आत्म-शुद्धि एवं स्थान शुद्धि
हवन से पूर्व स्नान अनिवार्य है। स्वच्छ वस्त्र (संभव हो तो श्वेत या हल्के रंग के सूती वस्त्र) धारण करें। पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठें। स्थान पर गंगाजल का छिड़काव करें।
द्वितीय चरण: संकल्प (The Solemn Vow)
दाहिने हाथ में जल और अक्षत लेकर संकल्प लें:
“अद्य… (तिथि/समय)… अहं मम परिवारस्य च आध्यात्मिक-आधिभौतिक-आधिदैविक तापत्रय निवारणार्थं शिव-प्रीत्यर्थं चेदं हवनं करिष्ये।”
अर्थात—मैं अपने परिवार की शांति और शिव की प्रसन्नता हेतु यह हवन कर रहा/रही हूँ।
तृतीय चरण: अग्नि प्रज्वलन एवं आवाहन
गोमय पात्र या हवन कुंड में कपूर की सहायता से अग्नि प्रज्वलित करें। अग्नि को देव रूप में मानकर प्रणाम करें:
“ॐ अग्नये नमः। अपां नपात् सप्रथसं देवानाम समिधं प्रियम्।।”
चतुर्थ चरण: मुख्य आहुति (The Core Oblations)
घी की तीन आहुति देकर हवन प्रारम्भ करें:
- ॐ अग्नये स्वाहा। इदं अग्नये न मम।
- ॐ सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय न मम।
- ॐ शिवाय स्वाहा। इदं शिवाय न मम।
इसके पश्चात, पञ्चाक्षरी मंत्र या महामृत्युंजय मंत्र के साथ सामग्री की आहुतियां दें। ध्यान रहे कि आहुति देते समय तर्जनी उंगली (Index finger) का प्रयोग न करें; अंगूठे, मध्यमा और अनामिका का ही प्रयोग करें (मृगी मुद्रा)।
६. मंत्र विज्ञान: ध्वनि का ब्रह्मांडीय प्रभाव
मंत्र केवल शब्द नहीं हैं, वे ध्वनि ऊर्जा के संवाहक हैं।
- ॐ नमः शिवाय: यह मंत्र हृदय चक्र को जागृत करता है।
- शिव बीज मंत्र (ॐ ह्रीं नमः शिवाय): यह शक्ति और शिव के सामंजस्य का प्रतीक है।
आहुति देते समय प्रत्येक मंत्र के अंत में ‘स्वाहा’ बोलना अनिवार्य है। ‘स्वाहा’ का अर्थ है—समर्पण। जब हम स्वाहा कहते हैं, तो हम अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को सार्वभौमिक इच्छा (Divine Will) में विलीन कर देते हैं।
७. भस्म (विभूति) का रहस्य और उपयोग
हवन के पश्चात जो शेष रहता है, वह केवल ‘राख’ नहीं है, वह ‘भस्म’ है। शिव को ‘भस्म-विभूषित’ कहा गया है।
“अग्निहोत्रसमुद्भवं भस्म सर्वपापविनाशनम्।”
भस्म धारण की विधि
जब अग्नि शांत हो जाए, तो उस शीतल भस्म को मस्तक, कंठ और हृदय पर लगाना चाहिए। यह शरीर के ऊर्जा केंद्रों (Chakras) को सुरक्षित करता है।
- विसर्जन: यदि भस्म का तिलक नहीं करना चाहते, तो इसे किसी पवित्र वृक्ष (जैसे तुलसी या पीपल) की जड़ में डालें। इसे कदापि कूड़ेदान में न फेंकें।
८. २०२६ महाशिवरात्रि हेतु विशेष निर्देश एवं सावधानियां
१. निशीथ काल (अर्धरात्रि): शिवरात्रि पर हवन हेतु सर्वाधिक उपयुक्त समय निशीथ काल है, जब महानिशा की ऊर्जा चरम पर होती है।
२. सात्विकता: पूरे दिन निराहार या फलाहार रहकर हवन करना अधिक प्रभावी होता है।
३. मौन पालन: हवन के दौरान अनावश्यक वार्तालाप से बचें। मंत्रों के अर्थ पर ध्यान केंद्रित करें।
४. सुरक्षा: बंद कमरों में हवन करते समय वेंटिलेशन (Ventilation) का ध्यान रखें ताकि ऑक्सीजन की कमी न हो।
उपसंहार: शिव ही सादगी हैं
महाशिवरात्रि का हवन कोई आडंबर नहीं, अपितु स्वयं को शिवत्व में विलीन करने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। भगवान भोलेनाथ वैभव के नहीं, अपितु भाव के भूखे हैं।
“पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥”
चाहे आप विस्तार से वेदोक्त पद्धति से हवन करें या एक छोटे से गोमय कप के माध्यम से ‘दिव्य हवन शक्ति किट’ का प्रयोग करें, यदि आपका ‘भाव’ शुद्ध है, तो शिव की कृपा आप पर अवश्य होगी। २०२६ की यह महाशिवरात्रि आपके जीवन में आध्यात्मिक प्रकाश और मानसिक शांति लेकर आए, यही मंगलकामना है।
“न मे भक्त: प्रणश्यति” — मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता।
महाशिवरात्रि की कालगणना में ‘चार प्रहर की पूजा’ का विधान आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत गूढ़ है। शास्त्रों के अनुसार, महाशिवरात्रि की रात्रि को चार भागों में विभाजित किया गया है, जिन्हें ‘प्रहर’ कहा जाता है। प्रत्येक प्रहर की पूजा का अपना विशिष्ट फल, मंत्र और अभिषेक द्रव्य होता है।
वर्ष २०२६ में महाशिवरात्रि १५ फरवरी को मनाई जाएगी। नीचे इन चार प्रहरों की पूजा का विस्तृत शास्त्रीय विवरण, समय (संभावित) और मंत्रों का संकलन प्रस्तुत है।
महाशिवरात्रि २०२६: चतुष्प्रहर पूजा एवं अभिषेक विधि
शिव पुराण के अनुसार, जो भक्त चारों प्रहर में भगवान शिव की आराधना करता है, वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त कर लेता है। प्रत्येक प्रहर में शिव के भिन्न स्वरूपों का ध्यान किया जाता है।
प्रथम प्रहर: सृजन और शांति की उपासना
- समय: शाम ०६:१५ से रात्रि ०९:२५ तक (लगभग)
- मानस भाव: इस प्रहर में शिव को ‘ईशान’ स्वरूप में पूजा जाता है। यह प्रहर हमारे रजोगुण को नियंत्रित करने के लिए है।
- अभिषेक द्रव्य: शुद्ध दुग्ध (गाय का कच्चा दूध)।
- प्रमुख मंत्र: > “सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः। भवे भवे नाति भवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः॥”
- विशेष अर्पण: इस प्रहर में कमल का फूल और चंदन अर्पण करना अत्यंत शुभ माना गया है।
- फल: प्रथम प्रहर की पूजा से मनुष्य के भौतिक कष्टों का निवारण होता है और घर में सुख-शांति का वास होता है।
द्वितीय प्रहर: पालन और संरक्षण की उपासना
- समय: रात्रि ०९:२५ से मध्यरात्रि १२:३५ तक (लगभग)
- मानस भाव: इस प्रहर में भगवान शिव के ‘अघोर’ स्वरूप का ध्यान किया जाता है। यह विष्णु तत्व और पालन शक्ति का प्रतीक है।
- अभिषेक द्रव्य: दधि (शुद्ध दही)। दही का अभिषेक मन की चंचलता को समाप्त कर स्थिरता प्रदान करता है।
- प्रमुख मंत्र:“वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः। कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः॥”
- विशेष अर्पण: बेलपत्र (बिल्वपत्र) और धतूरे का फल।
- फल: द्वितीय प्रहर की पूजा से आर्थिक उन्नति और शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है।
तृतीय प्रहर (निशीथ काल): संहार और रूपांतरण की उपासना
- समय: मध्यरात्रि १२:३५ से प्रातः ०३:४५ तक (लगभग)
- निशीथ काल: इस प्रहर के मध्य में ही ‘निशीथ काल’ आता है, जो महाशिवरात्रि का सर्वाधिक ऊर्जावान समय है।
- मानस भाव: इस समय शिव ‘रुद्र’ रूप में पूजे जाते हैं। यह अहंकार के विनाश और आत्म-साक्षात्कार का समय है।
- अभिषेक द्रव्य: घृत (गाय का शुद्ध घी)। घी तेज और ओज का प्रतीक है।
- प्रमुख मंत्र:“अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः। सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः॥”
- विशेष अर्पण: आक के पुष्प (मन्दार) और भांग।
- फल: यह प्रहर साधना की सिद्धि के लिए है। इससे साधक के भीतर के ‘काम’ और ‘क्रोध’ जैसे विकारों का दहन होता है।
चतुर्थ प्रहर: अनुग्रह और मोक्ष की उपासना
- समय: प्रातः ०३:४५ से सूर्योदय (लगभग ०६:५०) तक
- मानस भाव: इस प्रहर में शिव ‘महादेव’ या ‘सदाशिव’ के रूप में पूजे जाते हैं। यह ब्रह्म मुहूर्त का समय है, जो ज्ञान के उदय का प्रतीक है।
- अभिषेक द्रव्य: मधु (शुद्ध शहद) और इक्षु रस (गन्ने का रस)।
- प्रमुख मंत्र:“तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥” (रुद्र गायत्री)एवं”ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम्॥”
- विशेष अर्पण: अक्षत (बिना टूटे हुए चावल) और भस्म।
- फल: चतुर्थ प्रहर की पूजा जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति और मोक्ष प्रदान करने वाली मानी गई है।
प्रहर पूजा हेतु विशिष्ट हवन सारिणी (२०२६)
यदि आप प्रत्येक प्रहर में लघु हवन (Havan) करना चाहते हैं, तो ‘दिव्य हवन शक्ति किट’ का उपयोग करते हुए निम्नलिखित आहुतियों का पालन करें:
| प्रहर | आहुति संख्या | मुख्य सामग्री | बीज मंत्र |
| प्रथम | २८ आहुति | सफेद तिल और मिश्री | ॐ श्रीं शिवाय नमः |
| द्वितीय | २८ आहुति | जौ और बेल का गूदा | ॐ ह्रीं नमः शिवाय |
| तृतीय | १०८ आहुति | गुग्गुल और कपूर | ॐ नमः शिवाय (निशीथ काल) |
| चतुर्थ | ५१ आहुति | काले तिल और शहद | ॐ साम्ब सदाशिवाय नमः |
प्रहर पूजा के नियम और वर्जनाएं (Do’s and Don’ts)
१. पारण (Parana): व्रत का समापन अगले दिन सूर्योदय के पश्चात और चतुर्दशी तिथि के भीतर ही करना चाहिए।
२. अभिषेक की दिशा: शिवलिंग का अभिषेक करते समय आपका मुख उत्तर दिशा (North) की ओर होना चाहिए। उत्तर दिशा शिव की प्रिय दिशा मानी गई है।
३. शंख का निषेध: शिव पूजा में शंख का प्रयोग वर्जित है, क्योंकि शंखचूड़ नामक असुर का वध शिव ने किया था।
४. बिल्वपत्र की स्थिति: बेलपत्र चढ़ाते समय उसका चिकना भाग शिवलिंग की ओर होना चाहिए। कटे-फटे पत्र न चढ़ाएं।
५. नैवेद्य: प्रत्येक प्रहर के पूजन के बाद जो भोग (नैवेद्य) लगाया जाए, उसे स्वयं ग्रहण न करके दूसरों में बांटना या विसर्जित करना शास्त्रोक्त है।
निष्कर्ष
महाशिवरात्रि २०२६ की यह चतुष्प्रहर पूजा मनुष्य के सूक्ष्म शरीर के सातों चक्रों को जागृत करने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। प्रथम प्रहर से चतुर्थ प्रहर तक की यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर और शरीर से आत्मा की ओर की यात्रा है।
“आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं, पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः।” अर्थात—हे शिव! मेरी आत्मा आप हैं, मेरी बुद्धि पार्वती है, मेरे प्राण आपके गण हैं और मेरा यह शरीर आपका मंदिर है।
महाशिवरात्रि की कालगणना में ‘निशीथ काल’ वह परम संधिकाल है जब ब्रह्मांडीय ऊर्जा अपने चरमोत्कर्ष पर होती है। तंत्र शास्त्र और आगम ग्रंथों में इस समय को ‘सिद्ध मुहूर्त’ माना गया है। वर्ष २०२६ की महाशिवरात्रि पर इस काल की महत्ता इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि ग्रहों का गोचर साधक के ‘मूलाधार’ से ‘सहस्रार’ तक की ऊर्जा यात्रा को सुगम बनाने वाला है।
नीचे निशीथ काल की सूक्ष्म गणना और उस समय सम्पादित की जाने वाली ‘सात्विक तांत्रिक साधना’ की विस्तृत विधि प्रस्तुत है।
१. निशीथ काल २०२६: सूक्ष्म समय गणना
‘निशीथ’ का शाब्दिक अर्थ है—अर्धरात्रि का वह भाग जब सूर्य अधोलोक (पृथ्वी के ठीक नीचे) में स्थित होता है। खगोलीय दृष्टि से, यह स्थानीय मध्यरात्रि के आसपास के ४८ मिनट (दो घटी) का समय होता है।
- तिथि: १५ फरवरी २०२६ (रात्रि)
- निशीथ काल प्रारम्भ: रात्रि १२:०९ AM (१६ फरवरी)
- निशीथ काल समाप्त: रात्रि ०१:०० AM (१६ फरवरी)
- महत्व: आगमों के अनुसार, इसी समय भगवान सदाशिव का ‘लिंगोद्भव’ (ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होना) हुआ था। यह समय ‘शून्य अवस्था’ का प्रतीक है, जहाँ संकल्प सीधा ब्रह्मांडीय चेतना (Cosmic Consciousness) में प्रविष्ट होता है।
२. सात्विक तांत्रिक साधना: स्वरूप एवं दर्शन
यहाँ ‘तंत्र’ शब्द का अर्थ ‘मद्य-मांस’ वाली तामसिक पद्धतियां नहीं, अपितु ‘तनोति त्रायति इति तंत्र:’ है—अर्थात वह पद्धति जो शरीर और मन का विस्तार करके आत्म-रक्षा और आत्म-बोध प्रदान करे। सात्विक तंत्र साधना में बाह्य कर्मकांडों से अधिक आंतरिक ‘प्राण-ऊर्जा’ के संतुलन पर बल दिया जाता है।
साधना का मुख्य उद्देश्य:
- अन्तर्याग: आंतरिक यज्ञ द्वारा पंच-तत्वों का शुद्धीकरण।
- शक्ति-पात: शिव और शक्ति (इड़ा और पिंगला) का सुषुम्णा नाड़ी में मिलन।
- ग्रंथि भेदन: अज्ञान की ग्रंथियों (ब्रह्म, विष्णु और रुद्र ग्रंथि) का भेदन।
३. साधना की पूर्व तैयारी (Preparation)
निशीथ काल से १५ मिनट पूर्व निम्नलिखित व्यवस्था कर लें:
- आसन: कुशा का आसन या ऊनी आसन (काला या लाल रंग श्रेष्ठ है)।
- दिशा: उत्तराभिमुख (Facing North)—यह ज्ञान और मुक्ति की दिशा है।
- वातावरण: शुद्ध गुग्गुल या लोबान का धूप। तेल का एक दीपक जो साधना काल तक अखंड जले।
- माला: रुद्राक्ष की माला (संस्कारित और प्राण-प्रतिष्ठित)।
४. सात्विक तांत्रिक साधना विधि (Step-by-Step)
चरण १: भूत शुद्धि (Purification of Elements)
नेत्र बंद करके ध्यान करें कि आपका शरीर पांच तत्वों से बना है। मानसिक रूप से प्रत्येक तत्व को उसके मूल कारण में विलीन करें।
“ॐ ह्रीं हं लं पृथ्वी तत्त्वात्मने नमः। ॐ ह्रीं हं वं जल तत्त्वात्मने नमः। ॐ ह्रीं हं रं अग्नि तत्त्वात्मने नमः। ॐ ह्रीं हं यं वायु तत्त्वात्मने नमः। ॐ ह्रीं हं हं आकाश तत्त्वात्मने नमः॥”
चरण २: न्यास (Nyasa – Ritual Placement)
तंत्र में न्यास का अर्थ है मंत्र की शक्ति को शरीर के अंगों में स्थापित करना। दाहिने हाथ की उंगलियों से निम्नलिखित अंगों को स्पर्श करें:
- ऋषि न्यास: शिर (सिर) पर— ॐ अघोर ऋषये नमः।
- छंद न्यास: मुख पर— ॐ अनुष्टुप छन्दसे नमः।
- देवता न्यास: हृदय पर— ॐ अघोर रुद्राय नमः।
चरण ३: शिव-शक्ति ध्यान (Shiva-Shakti Dhyana)
निशीथ काल के प्रारंभ होते ही, हृदय कमल में अर्ध-नारीश्वर स्वरूप का ध्यान करें। दाहिना भाग ‘कर्पूर गौरम्’ (श्वेत) और बायां भाग ‘तप्त काञ्चन’ (स्वर्णवत आभा युक्त)।
“अमृतात्मने नमः।” — यह मंत्र जपें और अनुभव करें कि चंद्रमा से अमृत की वर्षा आपके सहस्रार चक्र पर हो रही है।
चरण ४: बीज मंत्र अनुष्ठान (The Core Tantric Mantra)
निशीथ काल के ४८ मिनटों में ‘पञ्चाक्षरी’ के साथ ‘बीज’ का सम्पुट लगाकर जप करें। यह मंत्र अत्यंत प्रभावशाली है:
“ॐ ह्रीं ह्रौं नमः शिवाय”
- ह्रीं (Hreem): माया बीज, जो शक्ति का प्रतीक है।
- ह्रौं (Haum): शिव बीज (प्रासाद बीज), जो मोक्ष और ज्ञान का प्रतीक है।
इस मंत्र की कम से कम ५ या ११ माला जपें। जप के दौरान श्वास को गहरा और धीमा रखें। प्रत्येक ‘नमः शिवाय’ के साथ मूलाधार से ऊर्जा को ऊपर उठता हुआ महसूस करें।
५. विशेष निशीथ काल अर्पण (The Alchemical Offering)
इस समय यदि संभव हो, तो एक लघु पात्र में ‘पंचामृत’ (दूध, दही, घी, शहद, शक्कर) लेकर उसमें थोड़ा सा ‘भस्म’ और ‘काले तिल’ मिलाएं। मंत्र जप के उपरांत इसे शिवलिंग पर अर्पित करें या मानसिक रूप से अर्पित करें।
तंत्रोक्त अर्पण मंत्र:
“आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं। पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः॥” (अर्थ: मेरी आत्मा आप हैं, मेरी बुद्धि पार्वती है, मेरे प्राण आपके गण हैं…)
६. साधना की समाप्ति एवं फलश्रुति
साधना के अंत में १० मिनट तक पूर्ण मौन धारण करें। इस मौन में जो विचार या स्फुरणा (Inspiration) प्राप्त हो, उसे शिव का संदेश मानें।
साधना का फल:
- मानसिक शांति: वर्षों पुराने मानसिक अवसाद और भय का नाश।
- कुण्डलिनी जागरण: सुषुम्णा नाड़ी में प्राण का संचार।
- ग्रह बाधा निवारण: जन्मकुंडली के समस्त क्रूर ग्रहों का शांत होना।
महत्वपूर्ण सावधानी (Caution)
निशीथ काल की साधना अत्यंत शक्तिशाली होती है। इसमें ‘क्रोध’ और ‘अहंकार’ का पूर्ण त्याग अनिवार्य है। यदि साधना के दौरान शरीर में कंपन या गर्मी महसूस हो, तो शांत रहें और केवल अपनी श्वास पर ध्यान केंद्रित करें। यह ऊर्जा के मार्ग परिवर्तन का लक्षण है।
मंत्र “ॐ ह्रीं ह्रौं नमः शिवाय” केवल शब्दों का समूह नहीं है, अपितु यह ध्वन्यात्मक ऊर्जा का एक ‘कॉस्मिक कोड’ है। तंत्र शास्त्र में इसे ‘सप्तार्ण मंत्र’ (सात वर्णों वाला) या बीज-युक्त पञ्चाक्षरी कहा जाता है। जब हम साधारण पञ्चाक्षरी मंत्र में ‘ह्रीं’ और ‘ह्रौं’ जैसे बीजों का संपुट लगाते हैं, तो इसकी शक्ति परमाणु बम के समान विखंडित होकर सूक्ष्म शरीरों में प्रवेश करती है।
नीचे इस मंत्र के प्रत्येक अक्षर का गूढ़ अर्थ और मानव शरीर के चक्रों (Chakras) के साथ उसका सीधा संबंध दिया गया है।
१. मंत्र संरचना और बीज विज्ञान (The Science of Beeja)
इस मंत्र में दो अत्यंत शक्तिशाली बीज समाहित हैं:
- ह्रीं (Hreem): इसे ‘माया बीज’ या ‘शक्ति बीज’ कहा जाता है। इसमें ‘ह’ शिव है, ‘र’ प्रकृति है, ‘ई’ महामाया है, और बिन्दु (अनुस्वार) दुःख-हरण है। यह हृदय में ऊर्जा का संचार करता है।
- ह्रौं (Haum): इसे ‘प्रासाद बीज’ या ‘शिव बीज’ कहा जाता है। इसमें ‘ह’ शिव है, ‘औ’ सदाशिव है, और नाद-बिन्दु मोक्ष प्रदान करने वाला है। यह आज्ञा चक्र को जाग्रत कर दिव्य दृष्टि प्रदान करता है।
२. अक्षर, तत्व और चक्रों का संबंध (Correlation Table)
मानव शरीर में सात मुख्य ऊर्जा केंद्र होते हैं। इस मंत्र के अक्षर इन केंद्रों को स्पंदित (Vibrate) करते हैं:
| मंत्र अक्षर | संबंधित तत्व | शरीर का चक्र (Chakra) | आध्यात्मिक प्रभाव |
| ॐ (Om) | परब्रह्म | सहस्रार (Sahasrara) | ब्रह्मांडीय चेतना से जुड़ाव। |
| ह्रीं-ह्रौं | शक्ति-शिव | आज्ञा (Ajna) | मानसिक एकाग्रता और अंतर्ज्ञान (Intuition)। |
| न (Na) | पृथ्वी (Earth) | मूलाधार (Muladhara) | स्थिरता, सुरक्षा और शारीरिक शक्ति। |
| म (Ma) | जल (Water) | स्वाधिष्ठान (Svadhisthana) | सृजनात्मकता और भावनाओं पर नियंत्रण। |
| शि (Shi) | अग्नि (Fire) | मणिपुर (Manipura) | आत्मविश्वास, पाचन और प्राण शक्ति। |
| व (Va) | वायु (Air) | अनाहत (Anahata) | प्रेम, करुणा और भक्ति का उदय। |
| य (Ya) | आकाश (Ether) | विशुद्ध (Vishuddha) | अभिव्यक्ति, सत्य और आत्म-शुद्धि। |
३. अक्षरों का तांत्रिक विवेचन (Esoteric Analysis)
न (Na) – “नागेन्द्रहाराय”
यह अक्षर स्थूल जगत का प्रतिनिधित्व करता है। साधना के प्रारम्भ में यह साधक को पृथ्वी तत्व से जोड़कर ‘स्थिरता’ प्रदान करता है। बिना मूलाधार को जाग्रत किए, कुण्डलिनी ऊपर नहीं उठ सकती।
म (Ma) – “मन्दाकिनी-सलिल”
यह जल तत्व का प्रतीक है। तांत्रिक दृष्टि से यह ‘अमृत’ का शोधन है। यह साधक के भीतर के काम-विकार को शुद्ध कर उसे ‘सृजन’ की ऊर्जा में बदल देता है।
शि (Shi) – “शिवाय”
यह शिव का कल्याणकारी रूप है और अग्नि का प्रतीक है। जैसे अग्नि अशुद्धियों को जला देती है, वैसे ही ‘शि’ अक्षर मणिपुर चक्र में स्थित संचित कर्मों के दहन का कार्य करता है।
व (Va) – “वशिष्ठ-कुम्भोद्भव”
यह वायु तत्व है। हृदय चक्र (अनाहत) में ‘व’ का उच्चारण करने से प्राण वायु संतुलित होती है। यह ‘अनासक्ति’ और ‘वैराग्य’ का बीज है।
य (Ya) – “यक्षस्वरूपाय”
यह आकाश तत्व है। विशुद्ध चक्र में इसका स्पंदन साधक को ‘अद्वैत’ की स्थिति में ले जाता है, जहाँ शब्द समाप्त हो जाते हैं और केवल शून्य शेष रहता है।
४. निशीथ काल में ध्यान की विधि (Method of Meditation)
जब आप महाशिवरात्रि २०२६ की अर्धरात्रि को इस मंत्र का जप करें, तो निम्नलिखित ‘मानसिक दर्शन’ करें:
- मूलाधार से आज्ञा तक: मंत्र के प्रत्येक अक्षर के साथ अपनी चेतना को रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले हिस्से (मूलाधार) से ऊपर की ओर ले जाते हुए सिर के मध्य (आज्ञा चक्र) तक महसूस करें।
- ज्योति पुञ्ज: कल्पना करें कि ‘ह्रौं’ बीज का उच्चारण करते समय आपके दोनों भौंहों के बीच एक प्रखर सूर्य के समान ज्योति चमक रही है।
- नाद श्रवण: जप के दौरान अपने कानों के भीतर होने वाली सूक्ष्म गूँज को सुनने का प्रयास करें। यह ‘अनाहत नाद’ है, जो साक्षात शिव की उपस्थिति है।
५. मंत्र का विशिष्ट फल (The Ultimate Result)
“पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसंनिधौ। शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥”
तांत्रिक मंत्रों में बीजों का संपुट लगाने से फल की प्राप्ति शीघ्र होती है। “ॐ ह्रीं ह्रौं नमः शिवाय” का नियमित जप करने से:
मृत्यु का भय और काल-सर्प दोष जैसे ज्योतिषीय कष्ट समाप्त होते हैं।
मानसिक द्वन्द्व समाप्त होते हैं।
साधक के चारों ओर एक ‘सुरक्षा कवच’ (Energy Shield) निर्मित होता है।
तंत्र शास्त्र और योग विज्ञान के अनुसार, जब कोई साधक “ॐ ह्रीं ह्रौं नमः शिवाय” जैसे शक्तिशाली बीज मंत्रों का अनुष्ठान महाशिवरात्रि की ऊर्जावान रात्रि में करता है, तो उसके सूक्ष्म शरीर (Subtle Body) में कुछ विशिष्ट परिवर्तन होने लगते हैं। इन परिवर्तनों को ‘साधना के अनुभव’ या ‘सिद्ध लक्षण’ कहा जाता है।
इन संकेतों को समझना इसलिए आवश्यक है ताकि साधक विचलित न हो और यह जान सके कि उसकी ऊर्जा सही दिशा में प्रवाहित हो रही है। यहाँ उन आंतरिक संकेतों का एक विस्तृत और शास्त्रीय विवरण प्रस्तुत है:
१. शारीरिक संकेत (Physical & Physiological Markers)
जब मंत्र की ध्वनि तरंगे और बीज मंत्रों का ‘घर्षण’ सुषुम्णा नाड़ी में होता है, तो भौतिक शरीर में निम्नलिखित अनुभव हो सकते हैं:
- उष्मत्व (Internal Heat): साधना के दौरान शरीर के भीतर एक विशेष प्रकार की गर्मी का अनुभव होना। इसे ‘तपस’ कहा जाता है। बीज मंत्र ‘ह्रौं’ अग्नि तत्व को प्रज्वलित करता है, जिससे शरीर के विषैले तत्व (Toxins) जलने लगते हैं।
- चींटी चलने का अहसास (Formication): रीढ़ की हड्डी के निचले हिस्से (मूलाधार) से लेकर ऊपर की ओर कुछ रेंगने जैसा अनुभव होना। इसे ‘पिपीलिका मार्ग’ (Ant’s path) कहा जाता है। यह इस बात का संकेत है कि प्राण ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन प्रारम्भ हो गया है।
- कम्पन और झटके (Spasms/Vibrations): अचानक शरीर में सूक्ष्म झटके लगना या स्वाधिष्ठान चक्र के पास स्पंदन होना।”यदा तु कूटस्थे चित्तं स्थिरं भवति, तदा शरीरे कम्पनादयः जायन्ते।”अर्थात्: जब चित्त कूटस्थ (स्थिर) होने लगता है, तब शरीर में कम्पन आदि क्रियाएं स्वतः होती हैं।
२. नाद श्रवण (Auditory Signs – Inner Sounds)
तंत्र शास्त्र में इसे ‘अनाहत नाद’ कहा जाता है। जब बाह्य कोलाहल शांत होता है और अंतर्मन जाग्रत होता है, तो साधक को कान के भीतर कुछ ध्वनियाँ सुनाई देने लगती हैं:
| नाद का प्रकार | संकेत का अर्थ |
| भ्रमर गुंजन (Bees humming) | एकाग्रता की शुरुआत। |
| घंटा नाद (Bells ringing) | चित्त का शुद्धिकरण और आज्ञा चक्र की सक्रियता। |
| वेणु नाद (Flute sound) | हृदय चक्र (अनाहत) का खुलना और भक्ति का उदय। |
| मेघ गर्जन (Thunder/Ocean roar) | कुण्डलिनी शक्ति का ऊर्ध्वमुखी तीव्र प्रवाह। |
३. प्रकाश दर्शन (Visual Signs – Divine Light)
मंत्र जप के दौरान बंद आँखों के सामने विभिन्न प्रकार के प्रकाश दिखाई दे सकते हैं। इन्हें ‘ज्योति दर्शन’ कहा जाता है:
- नील बिंदु (The Blue Pearl): आज्ञा चक्र (दोनों भौंहों के बीच) पर एक छोटा सा गहरा नीला या बैंगनी बिंदु दिखाई देना। इसे शिव की चेतना का केंद्र माना जाता है।
- श्वेत प्रकाश (White Aura): ध्यान में अचानक तीव्र सफेद रोशनी का कौंधना, जैसे बिजली कड़की हो। यह अज्ञान के आवरण के हटने का संकेत है।
- मंडलाकार दर्शन: अलग-अलग रंगों के घूमते हुए चक्र दिखाई देना, जो उस समय सक्रिय हो रहे विशेष चक्र (Chakra) के रंग के अनुरूप होते हैं।
४. मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक रूपांतरण (Psychological Shifts)
ये संकेत सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये साधक के व्यक्तित्व में स्थायी परिवर्तन लाते हैं:
- शून्य भाव (Voidness): साधना के दौरान ऐसा अनुभव होना कि शरीर का अस्तित्व ही नहीं है। साधक स्वयं को एक निराकार चेतना के रूप में अनुभव करने लगता है।
- अकारण आनंद (Bliss): बिना किसी बाहरी कारण के मन में अत्यंत प्रसन्नता और शांति का अनुभव होना। इसे ‘ब्रह्मानंद’ की एक झलक माना जाता है।
- काल-बोध की समाप्ति (Loss of Time Sense): आपको लगेगा कि आप केवल ५ मिनट बैठे हैं, जबकि वास्तव में १ घंटा बीत चुका होगा। यह इस बात का प्रमाण है कि आप ‘काल’ (Time) के प्रभाव से ऊपर उठकर महाकाल की शरण में पहुँच रहे हैं।
५. विशेष सावधानी: अनुभवों के प्रति दृष्टिकोण
तंत्र शास्त्र के महान आचार्य अभिनवगुप्त के अनुसार, साधक को इन अनुभवों के प्रति दो मुख्य सावधानियां रखनी चाहिए:
१. अभिमान का त्याग: इन संकेतों को अपनी उपलब्धि मानकर अहंकार न करें। यह शिव की कृपा है, आपकी शक्ति नहीं।
२. प्रदर्शन का निषेध: > “स्व-अनुभवं न प्रकाशयेत्” अर्थात् अपने आंतरिक अनुभवों को हर किसी को न बताएं। ऐसा करने से उस अनुभव की ऊर्जा (Energy) क्षीण हो जाती है। इसे केवल अपने गुरु या शिव के चरणों में ही समर्पित रखें।
६. साधना के पश्चात का प्रभाव
निशीथ काल की साधना के अगले दिन आपको स्वयं में ये बदलाव दिखेंगे:
- आँखों में एक विशेष चमक (Ojas)।
- वाणी में प्रभाव और स्पष्टता।
- क्रोध और उत्तेजना में भारी कमी।
उपसंहार:
महाशिवरात्रि २०२६ की वह दिव्य रात्रि आपके लिए केवल एक अनुष्ठान न रहे, बल्कि एक पुनर्जन्म सिद्ध हो। जब आप “ॐ ह्रीं ह्रौं नमः शिवाय” का जप करेंगे, तो ऊपर दिए गए संकेतों में से कोई भी अनुभव हो, तो घबराएं नहीं। बस शांत रहकर साक्षी भाव (Witnessing) से उन्हें देखते रहें।
किसी भी तांत्रिक या वैदिक अनुष्ठान की पूर्णता तब तक नहीं मानी जाती जब तक उसका शास्त्रीय विधि से ‘विसर्जन’ और ‘क्षमा-प्रार्थना’ न की जाए। तंत्र शास्त्र में कहा गया है कि अधूरा अनुष्ठान या बिना विसर्जन के छोड़ी गई ऊर्जा साधक के मानसिक असंतुलन का कारण बन सकती है। जिस प्रकार हम अतिथि को सम्मानपूर्वक बुलाते हैं, उसी प्रकार उन्हें सम्मानपूर्वक विदा करना भी अनिवार्य है।
महाशिवरात्रि २०२६ की इस गहन साधना के सफल समापन हेतु समापन की यह अंतिम प्रक्रिया अत्यंत महत्वपूर्ण है।
१. पूर्णाहुति: अनुष्ठान का चरमोत्कर्ष
साधना के अंत में, जब आपका जप और ध्यान पूर्ण हो जाए, तब अंतिम आहुति दी जाती है जिसे ‘पूर्णाहुति’ कहते हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि आपने अपना सर्वस्व शिव को समर्पित कर दिया है।
पूर्णाहुति मंत्र:
“ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥” “ॐ पूर्णमस्तु। ॐ शिवार्पणमस्तु॥”
अंतिम आहुति देते समय भावना करें कि आपकी व्यक्तिगत चेतना (Jivatma) उस पूर्ण ब्रह्म (Paramatma) में विलीन हो रही है।
२. विसर्जन (De-invocation): ऊर्जा का प्रत्यावर्तन
‘विसर्जन’ का अर्थ देवता को ‘निकाल देना’ नहीं है, बल्कि उस ऊर्जा को, जिसे आपने बाह्य प्रतीकों (अग्नि, मूर्ति या चित्र) में प्रतिष्ठित किया था, वापस अपने हृदय कमल में स्थापित करना है।
विसर्जन की विधि: १. अपने हाथों में थोड़े अक्षत और पुष्प लें। २. मन में यह प्रार्थना करें: “हे महादेव, आपने मेरी इस तुच्छ सेवा को स्वीकार किया, इसके लिए मैं कृतज्ञ हूँ। अब आप अपने दिव्य धाम को प्रस्थान करें और सदैव मेरे हृदय में वास करें।” ३. निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करें:
“गच्छ गच्छ सुरश्रेष्ठ स्वस्थाने परमेश्वर। यत्र ब्रह्मादयो देवास्तत्र गच्छ हुताशन॥” (हे देवताओं में श्रेष्ठ परमेश्वर, आप अपने परम स्थान को प्रस्थान करें, जहाँ ब्रह्मा आदि देव वास करते हैं।)
४. उन अक्षत और पुष्पों को अग्नि या शिव प्रतिमा के चरणों में अर्पित कर दें।
३. अपराध क्षमा-प्रार्थना (Seeking Forgiveness)
मनुष्य स्वभावतः त्रुटिपूर्ण है। साधना के दौरान मंत्रों के उच्चारण में शुद्धि की कमी, ध्यान का भटकना, या विधि में कोई कमी रह जाना स्वाभाविक है। इसके सुधार के लिए ‘अपराध क्षमापन स्तोत्र’ के इस अंश का पाठ अनिवार्य है।
क्षमा मंत्र:
“आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर॥” “मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन। यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे॥”
अर्थ: हे परमेश्वर! न मैं आपका आवाहन करना जानता हूँ, न विसर्जन। मुझे पूजा की विधियों का भी ज्ञान नहीं है। हे शिव, मुझे क्षमा करें। मेरा यह अनुष्ठान जो मंत्र, क्रिया और भक्ति से हीन है, आपकी कृपा से पूर्णता को प्राप्त हो।
४. आत्म-समर्पण और फल-त्याग
तंत्र साधना में ‘अहंकार’ सबसे बड़ी बाधा है। यदि साधक यह सोचे कि “मैंने बहुत बड़ी साधना की है,” तो उसका सारा पुण्य नष्ट हो जाता है। अतः अंत में फल को शिव को ही सौंप देना चाहिए।
अर्पण मंत्र:
“कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात्। करोमि यद्यत्सकलं परस्मै नारायणाय इति समर्पयामि॥” (यहाँ नारायण के स्थान पर ‘सदाशिवाय’ शब्द का प्रयोग करें)।
बोलें: “मया कृतमिदं सर्वं सदाशिवाय अर्पणमस्तु।” (मेरे द्वारा किया गया यह सब शिव को समर्पित है।)
५. शांति पाठ (Universal Peace Invocation)
साधना से उत्पन्न हुई ऊष्मीय ऊर्जा को ब्रह्मांड की शांति के लिए प्रवाहित करना चाहिए। अंत में अंजलि में जल लेकर पृथ्वी पर छोड़ें और यह मंत्र बोलें:
“ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्वं शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥”
६. साधना के उपरांत विशेष निर्देश
- मौन का परित्याग: साधना पूर्ण होने के कम से कम ३० मिनट बाद तक किसी से बात न करें। उस शांति को भीतर उतरने दें।
- प्रसाद ग्रहण: शिव को अर्पित किया गया नैवेद्य स्वयं ग्रहण करें और सपरिवार बांटें।
- भस्म धारण: हवन कुंड की विभूति (भस्म) को अपने मस्तक पर धारण करें। यह आपके सुरक्षा चक्र को अभेद्य बना देती है।
समापन संदेश:
महाशिवरात्रि २०२६ की यह यात्रा अब आपके भीतर एक बीज के रूप में स्थापित हो चुकी है। यह ‘अग्नि-होम’ और ‘निशीथ काल’ की साधना आपको केवल एक दिन के लिए नहीं, बल्कि पूरे वर्ष के लिए आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करेगी।
“नमो नीलकण्ठाय, नमो विश्वरूपिणे।”










